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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2678
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।

उत्तर -

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काव्य कृतियों का भाव सवेद्य और नैतिक मूल्यांकन तो किया था, पर वे नवीन युग की विकासोन्मुख काव्यधारा के सौष्ठव का पूर्ण साक्षात्कार न कर पाये। छायावादी काव्यधारा का मूल्यांकन करने में उनकी नीति प्रधान रसदृष्टि असमर्थ ही रही। यह कार्य हिन्दी की सौष्ठव तथा स्वच्छन्दतावादी समीक्षा पद्धति ने किया। इस पद्धति के प्रमुख समीक्षकों में से एक है- आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी।

समीक्षात्मक दृष्टिकोण - बाजपेयी जी ने हिन्दी आलोचना में अपने स्वछन्द विचारों के साथ पदार्पण किया। एक कहावत है, 'नई शराब पुरानी बोतल में न भरनी चाहिए, वह फट जाती है। इसी प्रकार नये काव्य की आलोचना भी पुरानी कसौटी पर ठीक-ठीक ढंग से नहीं हो सकती है। शुक्ल जी ने सूर, तुलसी, जायसी आदि की सर्वांगीण आलोचना करके हिन्दी आलोचना को सुदृढ़ भित्ति पर स्थापित अवश्य किया था, परन्तु उनकी नैतिकता की कसौटी पर सभी काव्य कसे नहीं जा सकते। इसलिए बाजपेयी ने शुक्ल जी की दृष्टि को छायावादी काव्य के सम्बन्ध में अनुपयुक्त माना। उनका कथन था कि अपने पूर्वाग्रह और द्विवेदीयुगीन संस्कारों के कारण शुक्ल जी छायावादी काव्य के साथ न्याय नहीं कर सकते हैं। इसके आलोचना की नई कसौटी होनी चाहिए। डॉ. भगवत स्वरूप मिश्रा ने बात को लक्ष्य करके लिखा- बाजपेयी जी ने शुक्ल जी के प्रबन्ध काव्यवाद तथा मर्यादावाद के कठोर नियंत्रण से हिन्दी समीक्षा को मुक्ति दिलाई है। बाजपेयी जी की समीक्षा पद्धति का स्वरूप उनकी इन रचनाओं में मिलता है -

(1) हिन्दी साहित्य : बीसवीं शताब्दी
(2) आधुनिक साहित्य
(3) जयशंकर प्रसाद
(4) महाकवि सूरदास
( 5 ) प्रेमचन्द्र
(6) कवि निराला तथा
(7) नया साहित्यः नये प्रश्न।

छायावादी के प्रति आकर्षण - छायावादी काव्य ने बाजपेयी जी की समीक्षा दृष्टि के निर्माण में महत् योग लिया। छायावादी की नूतन कल्पना छवियाँ, वायवीयत, अमूर्त भावों का चित्रण और लाक्षणिकता आदि की ओर वे विशेष आकृष्ट हुए। परिणामस्वरूप द्विवेदीयुगीन नैतिकता और इतिवृत्तात्मकता के प्रति वे स्वाभाविक रूप से विमुख रहे। साकेत की अभिव्यक्तियाँ उन्हें प्रभावित न कर सकीं। महावीर प्रसाद द्विवेदी के भाषा परिष्कार और सम्पादन को महत्व देते हुए उनके भी साहित्य को उन्होंने महत्वहीन माना। प्रेमचन्द के आदर्श को भी वे सराह न सके तथा प्रायः उनकी आरम्भिक आलोचनाओं में ही हुआ है, जहाँ वे संयम न रख सके हैं। उदाहरण के लिए देखिए - प्रेमचन्द जी एक शब्द को लेकर मजाक करने लगे जहाँ वाणी मौन रहती है, वह साहित्य नहीं गूँगापन है। यदि इस प्रकार की दलील की जाए तो हम भी कह सकते हैं कि उपन्यास, कहानियाँ और लेख लिखते समय क्या आपकी वाणी चिल्लाया करती है? आपकी किन- किन रचनाओं का कंठ फूट चुका है? क्या वह आविष्कार लखनऊ में हुआ है, जिससे साहित्यिक पुस्तकें वहाँ की कुँजड़िनों की तरह वाचाल बन गई हैं?

यह उदाहरण यदि एक ओर उनकी हास्य-व्यंग्य की प्रवृत्ति का द्योतक है, आलोचना करते-करते प्रतिपक्षी पर व्यंजक प्रश्नों की बौछार कर देने की प्रवृत्ति का परिचायक है तो दूसरी ओर उनकी व्यक्तिगत आक्षेप करने की प्रवृत्ति का निदर्शक भी है। परन्तु आरम्भिक रचनाओं के बाद उनकी लेखनी में संतुलन आता गया और उन्होंने व्यक्तिगत आक्षेप करना छोड़ दिया। 'आधुनिक साहित्य' नये प्रश्न में संकलित निबन्धों में उनका संतुलन देखा जा सकता है।

समन्वय भावना - बाजपेयी जी समन्वयवादी समीक्षक हैं। उन्होंने स्वच्छंदता और सौष्ठवादी समीक्षा पद्धति का शुक्ल पद्धति से समन्वय किया। शुक्ल जी की विश्लेषणात्मक पद्धति को विस्तार देते हुए उन्होंने उसे निगमनात्मक कर दिया। शुक्ल जी की नीतिवादी दृष्टिकोण को स्वीकार करते हुए उन्होंने उसे लोक कल्याण में रूपांतरित कर दिया। साहित्य का उद्देश्य चरित्र-निर्माण है। शुक्ल जी की इस धारणा को स्वीकार करते हुए साहित्य का उद्देश्य सांस्कृतिक चेतना प्रदान करना मानते हैं। शुक्ल जी रसवादी धारणा को अपनाते हुए उसका पाश्चात्य संवेदनीयता से समन्वय स्थापित करते हैं। वस्तुतः बाजपेयी जी को एक समृद्ध भाव-भूमि प्राप्त हुई थी। उस समय हिन्दी आलोचना विकास की ऊँचाइयों पर पहुँच हुई थी। बाजपेयी जी को विरासत के रूप में शुक्ल जी की अमूल्य सिद्धांत-निधि मिली, अध्ययन-मनन के लिए पाश्चात्य समीक्षा सिद्धांत मिले और इसके साथ-साथ समकालीन विकासशील आलोचना का स्वरूप मिला। इस समय तक सिद्धांत बन चुके थे, उपकरण निर्मित हो चुके थे। इसी बनी बनाई पृष्ठभूमि पर कार्य करने के लिए जिस सजग आलोचना बुद्धि की आवश्यकता थी, उसका बाजपेयी जी में पूर्ण सन्निवेश था।

सौन्दर्य - प्रेम बाजपेयी जी की समीक्षात्मक दृष्टि को समझने के लिए हमें उनकी सूर और प्रसाद की आलोचनाएँ देखनी आवश्यक हैं। सूर के गोचारण तथा गोवर्धन-धारण के कथात्मक प्रसंगों का सौन्दर्य उन्हें अभिभूत किये बिना नहीं रहता। तभी वे लिखते हैं, "स्थिति विशेष का पूरा दिग्दर्शन भी करें, घटना क्रम का आभास भी दें और साथ ही समुन्नत कोटि के रूप, सौन्दर्य और भाव सौन्दर्य की परिपूर्ण झलक भी दिखाते जाएं। यह विशेषता हमें कवि सूरदास में ही मिलती है। इससे प्रकट है कि सौन्दर्य-बोध पर बाजपेयी जी की पूर्ण आस्था है। कदाचित इसलिए जयशंकर प्रसाद उनके सर्वाधिक प्रिय कवि बने। डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने लिखा है, "कहना चाहे तो यह कह सकते हैं कि यदि आचार्य शुक्ल के काव्य- सिद्धांत तुलसी के आधार पर निर्मित हुए हैं, तो बाजपेयी जी की मान्यताएँ प्रसाद से प्रभावित हैं।' प्रसाद जी रसवादी ( आनन्दवादी) कलाकार थे और बाजपेयी जी रसवादी समीक्षक हैं। सौन्दर्य को वे नैतिकता के बन्धनों में बाँधना चाहते हैं। शुक्ल जी ने सौन्दर्य को शिवत्व से पूरित देखना चाहा था, पर बाजपेयी जी सौन्दर्य को स्वतः ही शिवत्वमय देखते हैं और उसे नैतिकता के बन्धनों में आवृत्त करने के विरुद्ध हैं। वे मानते हैं कि श्रेष्ठ कला में शील-अश्लील का प्रश्न उठाना अनुचित है। उनके शब्दों में, "महान् कला कभी अश्लील नहीं हो सकती। उनका विश्वास है सौन्दर्य स्वतः शिव है।'

 

सौन्दर्य के प्रति बाजपेयी जी में निरन्तर आग्रह का भाव विद्यमान रहता है। प्रेमचन्द की आलोचना में उन्होंने कहा है, "इस 'शिव' शब्द को हम व्यर्थ समझकर निकाल देना चाहते हैं। 'सत्य' और 'सुन्दर' पर्याप्त है। उनका विश्वास है, "सुन्दरतम् साहित्यिक रचनाओं में सार्वजनिकता होती है, युग का प्रतिबन्ध या वाद का वितण्डा नहीं होता।' इस प्रकार सौन्दर्यानुसंधान उनकी समीक्षा दृष्टि की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।

रस विषयक दृष्टि- बाजपेयी जी ने प्राच्य एवं पाश्चात्य आलोचकों के अध्ययन एवं संतुलन द्वारा साहित्यिक व्यक्तित्व का निर्माण किया। पाश्चात्य विचारधारा से प्रभावित होने के कारण वे काव्य को कला मानते हैं, जबकि भारतीय काव्यशास्त्र उसे कला नहीं मानता। वे रस को 'ब्रह्मानन्द सहोदर' कहने की परम्परागत मान्यता से भी सहमत नहीं हैं। उनका तर्क है कि रस को ब्रह्मानन्द सहोदर कहकर उसकी आड़ में अनेक ऐसे तत्वों का प्रतिपादन किया गया है, जो भारतीय समाज और संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते। उनकी मान्यता है कि रस को केवल वेद्यान्तर स्पर्श शून्य ब्रह्मानन्द सहोदर कहना उसे संकुचित परिधि में बाँधना है। उसे इतना व्यापक बना देना चाहिए कि कला मात्र के आनन्द को 'रस' नाम से अभिहित किया जा सके। वे काव्य में अनुभूति की तीव्रता को ही मुख्य मानते हैं, और अभिव्यंजना को गौण समझते हैं। उनके शब्दों में "काव्य अथवा कला का सम्पूर्ण सौन्दर्य अभिव्यंजना का ही सौन्दर्य नहीं है। अभिव्यंजना काव्य नहीं है। काव्य अभिव्यंजना से उच्चतर तत्व है। उसका सीधा सम्बन्ध मानव जगत और मन की कृतियों से है, जबकि अभिव्यंजना का सम्बन्ध सौन्दर्यपूर्ण प्रकाशन से है।'

अलंकार विषयक दृष्टि- बाजपेयी जी ने काव्य के लिए अलंकार को आवश्यक नहीं माना है। उनका कथन है- "कविता अपने उच्चतम स्तर पर पहुँचकर अलंकार विहीन हो जाती है, वहाँ वह वेगवती नदी की भाँति हाहाकार करती हुई हृदय को स्तम्भित कर देती है। उस समय उसके प्रवाह में अलंकार, ध्वनि, वक्रोति आदि न जाने कहाँ बह जाते हैं, और सारे सम्प्रदाय न जाने कैसे मटियामेट हो जाते हैं।' बाजपेयी जी के अनुसार, ऐसी उच्चस्तरीय कविता में अर्थकार वही कार्य करते हैं, जो दूध में पानी। इससे प्रकट है कि बाजपेयी जी काव्य में अनुभूति को प्रधानता देते हैं, अभिव्यक्ति को नहीं। उनकी समीक्षा पद्धति का निर्माण भारतीय और पाश्चात्य दोनों विचारधाराओं के समन्वय से हुआ है। इसीलिए उन्होंने विश्वासपूर्ण कहा है, "पिछले पचास वर्षों से हिन्दी साहित्य की जो मर्यादा बन गई है उसे हम किसी भी स्थिति में टूटने न देंगे।" वे अतिवादों से बचते हुए भारतीय साहित्य-शास्त्र की मान्यताओं को समुन्नत और व्यापक बनाना चाहते हैं। इसके लिए यह आवश्यकता पड़ने पर पाश्चात्य सिद्धांतों को ग्रहण करने से भी नहीं हिचकते हैं।

बाजपेयी जी की मान्यता है कि साहित्य को जीवन के लिए अजस्र स्रोत की भाँति होना चाहिए। उसमें समाज, संस्कृति, जीवन, सांस्कृतिक चेतना और भावनाओं के परिष्करण की शक्ति होनी चाहिए। काव्य के सम्बन्ध में वे सौन्दर्य तत्व पर विशेष बल देते हैं तो नाटक और कथा के क्षेत्र में जीवन-चेतना और सामाजिक प्रभाव को मुख्य मानते हैं। इसीलिए उन्होंने जैनेन्द्र के सीमित दृष्टिकोण, वैविध्य हीनता हासोन्मुखी मूल्यों पर प्रहार किये। अश्क की उपन्यास सृष्टि को सजीव किन्तु पात्रों को निर्जीव माना है। 'शेखर एक जीवनी' के सम्बन्ध में प्रश्न उठाये हैं।

वाद-विमुखता - बाजपेयी जी किसी वाद में आस्था नहीं रखते हैं। उनका स्पष्ट कथन है, "वाद-पद्धति पर चलने का परिणाम साहित्य में कृत्रिमता बढ़ाना, दलबन्दी फैलाना और साहित्य की निष्पक्ष भाव को क्षति पहुँचाना ही हो सकता है। आलोचक-कर्म की सफलता के लिये बाजपेयी ने दो आवश्यक शर्तें बतायी हैं "एक यह कि समीक्षा का व्यक्तित्व समुन्नत हो और दूसरी यह कि उसमें कला का मानसिक आधार ग्रहण करने की पूरी शक्ति हो, किसी मतवाद का आग्रह न हो। उनका मानना है कि युग की संवेदनाओं से समीक्षक का घनिष्ठ संबंध होना चाहिए।

समीक्षा - शैली बाजपेयी जी की समीक्षा-शैली व्याख्यात्मक और विवेचनात्मक है। उनकी मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) किसी कृति की विशेषताओं का उद्घाटन करते समय वे क्रमानुसार एक, दो और तीन नम्बर देते हुए उनका वर्णन करते हैं। शुक्ल जी की भाँति किसी एक तथ्य को सूत्ररूप में उपस्थित करके         उसकी व्याख्या नहीं करते, अपितु तथ्यों का क्रमानुसार वर्णन करते हैं।
(2) व्याख्या में पूर्णता और प्रभावात्मकता की सृष्टि के लिए वे तुलनात्मक पद्धति का प्रश्रय भी ग्रहण करते हैं। साकेत की आधुनिकता पर विचार करते हुए, उसकी कामायनी, कुरुक्षेत्र और मानस से     तुलना करते हैं।
(3) कहीं-कहीं विषय में डूबकर वे भाव-विभोर भी हो जाते हैं। ऐसे स्थलों पर उनकी आलोचना प्रभाववादी हो जाती है। सूर की आलोचना में ऐसा देखा जा सकता है, परन्तु ऐसे स्थल अत्यन्त कम हैं।
(4) बाजपेयी जी कहीं-कहीं आवेश में आकर प्रश्नों की बौछार करने लगते हैं। यथा- 'शेखर: एक जीवनी' की आलोचना का यह स्थल देखिए- "अब वह (शशि ) और भी निराश्रित हो गई, किन्तु शेखर     को और बल मिला। संस्कार के लिए, समाधान के लिए, शांति के लिए? नहीं, आत्म-प्रवंचना के लिए, विषाद तृप्ति के लिए, अहं पूर्ति के लिए।'
(5) हास्य-व्यंग्य का सन्निवेश बाजपेयी जी की आलोचना-शैली की एक अन्य विशेषता हैं। कहीं-कहीं व्यंग्य में तीखापन भी आ गया है।

भाषा - बाजपेयी जी की आलोचनाओं की भाषा संयत व गम्भीर है। डॉ. नागेन्द्र ने उनकी भाषा और विवेचन पर अस्पष्टता का आरोप किया है, जो अनुचित है। वस्तुतः बाजपेयी जी की भाषा में भावोदद्बोधन की अद्भुत शक्ति है। कहीं-कहीं अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग करते हैं, परन्तु उनके साथ हिन्दी शब्द भी रख देते हैं। उर्दू शब्दों का उनकी भाषा में अभाव है। तथ्यों के उल्लेख के अवसरों पर वाक्य छोटे-छोटे रहते हैं, जबकि भावों का प्रवाह रहने पर वाक्य बड़े हो जाते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बाजपेयी जी आधुनिक हिन्दी समीक्षकों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। प्राचीन और नवीन के सहज सामंजस्य को नया रूप, नया जीवन, नयी दिशा देने का उन्होंने सराहनीय कार्य किया है। प्राचीनता से उन्हें विरोध नहीं है और न नवीनता के प्रति व्यामोह है। इन दोनों के संयत सम्मिश्रण को उन्होंने साहित्य क्षेत्र में वांछनीय बताया है। आधुनिक काव्य-चेतना के लिए उपयुक्त भारतीय काव्य-तत्व उन्होंने निःसंकोच ग्रहण किये हैं और भारतीय समाज के उपर्युक्त पाश्चात्य आदर्शों को भारतीय जामा पहनाने में भी कोई त्रुटि नहीं की है। पीटर और एडीसन की विचारधारा को भी उन्होंने अपनाया तथा भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परागत मान्यताओं को भी उपजीण्य बनाकर अपनी समीक्षा पद्धति का विकास किया।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- आलोचना को परिभाषित करते हुए उसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकासक्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पद्धति का मूल्याँकन कीजिए।
  5. प्रश्न- डॉ. नगेन्द्र एवं हिन्दी आलोचना पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- नयी आलोचना या नई समीक्षा विषय पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन आलोचना पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- द्विवेदी युगीन आलोचना पद्धति का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- नन्द दुलारे वाजपेयी के आलोचना ग्रन्थों का वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  12. प्रश्न- प्रारम्भिक हिन्दी आलोचना के स्वरूप एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  13. प्रश्न- पाश्चात्य साहित्यलोचन और हिन्दी आलोचना के विषय पर विस्तृत लेख लिखिए।
  14. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  15. प्रश्न- आधुनिक काल पर प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  17. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  18. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख भर कीजिए।
  21. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के व्यक्तित्ववादी दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  22. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद कृत्रिमता से मुक्ति का आग्रही है इस पर विचार करते हुए उसकी सौन्दर्यानुभूति पर टिप्णी लिखिए।
  23. प्रश्न- स्वच्छंदतावादी काव्य कल्पना के प्राचुर्य एवं लोक कल्याण की भावना से युक्त है विचार कीजिए।
  24. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद में 'अभ्दुत तत्त्व' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए इस कथन कि 'स्वच्छंदतावादी विचारधारा राष्ट्र प्रेम को महत्व देती है' पर अपना मत प्रकट कीजिए।
  25. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद यथार्थ जगत से पलायन का आग्रही है तथा स्वः दुःखानुभूति के वर्णन पर बल देता है, विचार कीजिए।
  26. प्रश्न- 'स्वच्छंदतावाद प्रचलित मान्यताओं के प्रति विद्रोह करते हुए आत्माभिव्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति अनुराग के चित्रण को महत्व देता है। विचार कीजिए।
  27. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  28. प्रश्न- कार्लमार्क्स की किस रचना में मार्क्सवाद का जन्म हुआ? उनके द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर एक टिप्पणी लिखिए।
  30. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझाइए।
  31. प्रश्न- मार्क्स के साहित्य एवं कला सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- साहित्य समीक्षा के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की कतिपय सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
  33. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिए।
  34. प्रश्न- मनोविश्लेषणवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।
  35. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  36. प्रश्न- समकालीन समीक्षा मनोविश्लेषणवादी समीक्षा से किस प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
  37. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  38. प्रश्न- मार्क्सवाद का साहित्य के प्रति क्या दृष्टिकण है? इसे स्पष्ट करते हुए शैली उसकी धारणाओं पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- मार्क्सवादी साहित्य के मूल्याँकन का आधार स्पष्ट करते हुए साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
  40. प्रश्न- "साहित्य सामाजिक चेतना का प्रतिफल है" इस कथन पर विचार करते हुए सर्वहारा के प्रति मार्क्सवाद की धारणा पर प्रकाश डालिए।
  41. प्रश्न- मार्क्सवाद सामाजिक यथार्थ को साहित्य का विषय बनाता है इस पर विचार करते हुए काव्य रूप के सम्बन्ध में उसकी धारणा पर प्रकाश डालिए।
  42. प्रश्न- मार्क्सवादी समीक्षा पर टिप्पणी लिखिए।
  43. प्रश्न- कला एवं कलाकार की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवाद की क्या मान्यता है?
  44. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  45. प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  46. प्रश्न- 'समीक्षा के नये प्रतिमान' अथवा 'साहित्य के नवीन प्रतिमानों को विस्तारपूर्वक समझाइए।
  47. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  48. प्रश्न- मार्क्सवादी आलोचकों का ऐतिहासिक आलोचना के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
  49. प्रश्न- हिन्दी में ऐतिहासिक आलोचना का आरम्भ कहाँ से हुआ?
  50. प्रश्न- आधुनिककाल में ऐतिहासिक आलोचना की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए उसके विकास क्रम को निरूपित कीजिए।
  51. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण व व्यवहारिक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना एवं स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  55. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  56. प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
  57. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  58. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।

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